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जनता पूछे नेता से साहेब कब स्वार्थ त्यागोगे नेता बोला यह कैसे संभव है मैं तो पहले एक व्यापारी हूं मुझसे ऐसी आशा करनी ही निष्फल है। फ़ुरसत कब मिल पाती है चिंतन करूं मूल्यों और आदर्शों के बारे में समय बीतता है रचने व्यूहचकर और घोटाले में । कोई भी काल दशा हो व्याप्त अपना दिमाग रहता षड़यंत्र संलिप्त अपने तो नारों में ही राष्टवाद और समाजवाद दिलों दिमाग में व्याप्त रहे परिवारवाद कहां से पाना कमीशन और कहां करना भूमि अधिग्रहण सोचता निरंतर अपना तो मन मस्तिष्क जनता की सुध तो चुनाव में ली जाती है जन कल्याण की ऊंची हूंकार भरी जाती है बहकावे में जब भोली जनता आती है तब अपने पक्ष में मतपेटी की मांग भरी जाती है। जब जीत का डंका बजता है शीश पर ताज सजता है फिर जनता की आकांक्षाओं को दमण किया जाता है । अर्थव्यवस्था और राजस्व का विलाप किया जाता है अपने घर की तिजौरी को भरने का प्रबंध किया जाता है तब जनता ठगी सी रह जाती है चीखती चिल्लाती शो मचाती है अपना आसीततव बचाने को सब कुछ दबकर चुपचाप सहती है मुझसे बदला लेने के लिए मेरे ही समरुप को अपना सि...